Monday, July 9, 2007

एक लम्हा

सुन्हेरी शाम ढल रही थी,
आस्मान का सूनापन, जिसमे
एक परिंदा भी ना समाया हो
धीरे से ज़हन में उतर गया..


कुछ नहीं कहा,
सिर्फ आँखों में चालाक गया
बहुत चाहा आंसू बन कर बह जाये
पर पल्को में ही ठेहर गया..


धुएँ कि तरह खुशियों को जाते देखा
रोकते भी टोह कैसे..
हवा को गले लगते देखा
चाहा बहुत पूछो अपने खुदा से
पर हस्ता ज़माना इस हरे मुसाफिर पर
लोगों के दर्र से खुद को मुस्कुराते देखा!!


दिल का रंग आखों से उतर गया
ऐसा हुआ अँधेरा कि साया भी बिचाद गया
अरे हम टोह कबके खुशबु बन गए होते
ना जाने किसकी साँसों ने हमे जिंदा रखा!!








चारु कौशल

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